लोकतंत्र के नाम पर चीन की हिमायत, Nepal ने क्यों उठाई हिंदू राष्ट्र की मांग?

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Nepal में लोकतंत्र और राजशाही की वापसी की मांग: हिंसक प्रदर्शन और राजनीतिक अस्थिरता

Nepal में लोकतंत्र की स्थापना के बाद जनता की उम्मीदें इतनी ऊँची थीं कि इस बदलाव से देश में स्थिरता और विकास होगा। लेकिन पिछले कई वर्षों में Nepal में जिस प्रकार की राजनीतिक अस्थिरता और भ्रष्टाचार सामने आया है, उससे जनता अब ठगी हुई महसूस कर रही है। लोकतंत्र के नाम पर जो विश्वास 2008 में राजशाही को समाप्त करने के बाद बना था, अब उसी लोकतंत्र ने नागरिकों की उम्मीदों को तोड़ा है। वर्तमान में, लोकतंत्र की विफलता और राजशाही की वापसी की मांग में तेजी आ गई है।

राजशाही का प्रभाव और लोकतंत्र के विफलताएँ

2008 में जब Nepal ने राजशाही को खत्म करके लोकतंत्र की ओर कदम बढ़ाया था, तब लोगों को यह उम्मीद थी कि देश में एक नई दिशा और विकास होगा। लेकिन 16 साल बाद स्थिति बिल्कुल अलग हो गई है। Nepal में कुल 10 सरकारें बदल चुकी हैं और राजनीतिक अस्थिरता लगातार बढ़ रही है। गठबंधन सरकारों के विवाद, कुर्सी की दौड़ और सरकारी भ्रष्टाचार ने Nepal को व्यावहारिक रूप से अराजकता की ओर धकेल दिया है। साथ ही, Nepal की कम्युनिस्ट सरकार चीन के प्रति अपनी निष्ठा को लेकर आलोचना का शिकार हो रही है।

चीन की बढ़ती पकड़ और भारत से संबंधों में खटास

Nepal की कम्युनिस्ट सरकार ने चीन के साथ कई समझौतों पर हस्ताक्षर किए, जो कि Nepal के लोगों के हितों के खिलाफ गए। चीन से विकास के नाम पर कर्ज लेने और उस पर निर्भर होने के कारण Nepal के प्राकृतिक संसाधनों का शोषण हो रहा है। साथ ही, नेपाल-भारत संबंधों में भी खटास आई है। भारत और Nepal के बीच सीमा विवाद और चीन के प्रभाव में वृद्धि ने स्थिति को और जटिल बना दिया है। ऐसे में नेपाल की जनता अब यह महसूस करने लगी है कि मजबूत केंद्रीय नेतृत्व और जनहित के मामलों में केवल राजशाही ही सक्षम हो सकती है।

हिंसक आंदोलन और प्रदर्शनकारियों की सड़कों पर आना

Nepal में पिछले कुछ महीनों से राजशाही समर्थक संगठनों ने प्रदर्शन तेज कर दिए हैं। शुक्रवार को काठमांडू और अन्य क्षेत्रों में प्रदर्शनकारियों और सुरक्षाबलों के बीच झड़पें हुईं, जिससे कम से कम दो लोगों की मौत हो गई। कई स्थानों पर आगजनी हुई और स्थिति को नियंत्रण में लाने के लिए सरकार ने सेना तैनात की और कर्फ्यू भी लगा दिया। यह हिंसक आंदोलन राजशाही के समर्थकों की बढ़ती ताकत को दर्शाता है, जिन्होंने पूर्व नरेश ज्ञानेंद्र शाह की वापसी की मांग की है।

राजशाही समर्थक संगठनों का आंदोलन: ‘राजा वापस आओ, देश बचाओ’

Nepal में राजशाही के समय कई नरेशों का शासन जनता के बीच लोकप्रिय था। राजा वीरेंद्र शाह के शासनकाल को भी लोग संतोषजनक मानते थे। राजा की मौजूदगी में नेपाल में स्थिरता थी और जनता की सुरक्षा का ध्यान रखा जाता था। लोकतंत्र के बाद आई अस्थिरता और भ्रष्टाचार ने नेपालियों को पुराने दिनों की याद दिलाई है। इसी कारण, पिछले कुछ दिनों में पूर्व नरेश ज्ञानेंद्र शाह के समर्थन में प्रदर्शन तेज हो गए हैं। 19 फरवरी को, ज्ञानेंद्र शाह त्रिभुवन अंतरराष्ट्रीय एयरपोर्ट पर पहुंचे, जहां उनके समर्थकों ने मोटरसाइकल रैली निकाली और ‘राजा वापस आओ, देश बचाओ’ के नारे लगाए।

Nepal की पहचान और हिंदू राष्ट्र की मांग

Nepal की पहचान पहले हिंदू राष्ट्र के तौर पर थी, जब तक राजशाही का शासन था। लेकिन लोकतंत्र की स्थापना के बाद, कम्युनिस्टों ने नेपाल को धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र घोषित कर दिया। नेपाल में हिंदू धर्म के अनुयायी अधिकांश हैं और उनका मानना है कि केवल राजशाही में ही उनकी संस्कृति का संरक्षण किया जा सकता है। हालांकि, नेपाल का संविधान अब इसे धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र मानता है, लेकिन लोग इसे हिंदू बहुल देश मानते हुए इसे धर्मनिरपेक्ष घोषित करने का विरोध कर रहे हैं। उनका कहना है कि यह कदम नेपाल की सांस्कृतिक धरोहर के लिए हानिकारक है।

Nepal में लोकतंत्र के लिए आंदोलन और राजशाही का अंत

Nepal में लोकतंत्र की शुरुआत 1990 में एक आंदोलन के रूप में हुई थी, जिसके बाद मल्टी पार्टी सिस्टम की शुरुआत हुई। राजा महेंद्र शाह के बाद उनके बेटे वीरेंद्र शाह ने संवैधानिक राजा के रूप में कार्य किया। 2001 में राजपरिवार में एक नरसंहार हुआ, जिसमें राजा वीरेंद्र शाह और उनके परिवार के कई सदस्य मारे गए। इसके बाद, ज्ञानेंद्र शाह ने गद्दी संभाली, लेकिन 2005 में उन्होंने लोकतंत्र को खत्म कर सेना का शासन लागू किया। उनका यह कदम विरोध का कारण बना, और 2008 में नेपाल ने राजशाही को खत्म कर इसे रिपब्लिक घोषित कर दिया।

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