राजस्थान(Rajasthan): गुलाबी नगरी, जयपुर(Jaipur), इन दिनों सियासी रंग में रंगी हुई है, लेकिन इस बार चर्चा का विषय कुछ और ही है. सवाल उठ रहा है कि क्या आज के दौर में एक छात्र नेता की पहचान उसके विचारों से नहीं, बल्कि उसके खिलाफ दर्ज मुकदमों से तय होती है? यह प्रश्न केवल छात्र राजनीति का नहीं, बल्कि हमारे लोकतंत्र की नींव से जुड़ा एक महत्वपूर्ण सवाल है.
एक समय था जब विश्वविद्यालय छात्र राजनीतिक विचारधाराओं की प्रयोगशाला माने जाते थे. छात्रों का संवाद, वाद-विवाद, और नेतृत्व का पहला कदम छात्र राजनीति से ही शुरू होता था. यहीं से भविष्य के नेता मुद्दों पर अपनी समझ विकसित करते थे और समाज के लिए एक स्पष्ट दृष्टिकोण रखते थे. लेकिन आज स्थिति कुछ बदली हुई प्रतीत होती है.

‘नेता बनने’ की नई परिभाषा?
वर्तमान में इस बात पर बहस तेज है कि क्या ‘नेता बनने’ के लिए विरोध करना, गिरफ्तारी देना, या फिर FIR में छात्र नेताओं का नाम आना ज़रूरी हो गया है. बेशक, एक छात्र नेता के दिमाग में तेज़ी होना अच्छी बात है, लेकिन क्या अब ‘गर्मी’ ही उनकी पहचान बनती जा रही है? पिछले कुछ सालों में कई विश्वविद्यालयों में छात्र आंदोलनों के नाम पर हिंसा, तोड़फोड़ और टकराव की घटनाएं बढ़ती जा रही हैं. कानून-व्यवस्था से टकराव और राजनीतिक प्रभाव से जुड़ाव,, यही आज के नए छात्र नेता की परिभाषा बनती जा रही है. यह एक चिंताजनक प्रवृत्ति है, क्योंकि जो छात्र आज विश्वविद्यालय के पोस्टरों पर हैं, कल वही संसद में भाषण देंगे.
भविष्य का नेतृत्व: मुद्दों पर आधारित या नारों की गूंज?
यह सवाल हमें सोचने पर मजबूर करता है कि क्या हमारा भविष्य का नेतृत्व मुद्दों पर आधारित रहेगा, या फिर महज मुकदमों और नारों की गूंज में गुम हो जाएगा? एक स्वस्थ लोकतंत्र के लिए यह आवश्यक है कि उसके नेता विचारों की गहराई, समाज के प्रति प्रतिबद्धता, और जनहित के मुद्दों पर अपनी मजबूत पकड़ के लिए जाने जाएं. यदि छात्र राजनीति सिर्फ टकराव और कानूनी पचड़ों तक सिमट जाएगी, तो यह हमारे लोकतंत्र के भविष्य के लिए शुभ संकेत नहीं है.
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