परिचय: अंतरराष्ट्रीय टकराव और भारत की स्थिति
ईरान और इज़राइल के बीच बढ़ते सैन्य तनाव ने वैश्विक राजनीति में हलचल मचा दी है। लेकिन इस संघर्ष का सीधा असर भारत पर भी पड़ रहा है – न सिर्फ रणनीतिक दृष्टिकोण से, बल्कि आर्थिक, कूटनीतिक और सुरक्षा के नजरिए से भी। भारत खुद को एक मुश्किल स्थिति में पा रहा है, जहां उसे दोनों पक्षों के साथ अपने संबंधों को संतुलित करना है।
भारत की संतुलनकारी नीति: क्यों है ज़रूरी?
भारत के लिए यह सिर्फ दो देशों के बीच का युद्ध नहीं, बल्कि एक संवेदनशील राजनयिक परीक्षा है।
- इज़राइल भारत का मजबूत सामरिक साझेदार है, जिससे रक्षा, तकनीक और कृषि जैसे क्षेत्रों में गहरा सहयोग है।
- ईरान भारत के लिए ऊर्जा का बड़ा स्रोत है, साथ ही चाबहार पोर्ट जैसे रणनीतिक प्रोजेक्ट भी दोनों देशों को जोड़ते हैं।
इसलिए भारत के लिए यह ज़रूरी हो जाता है कि वो किसी एक पक्ष के साथ खड़े होकर दूसरे को नाराज़ न करे।
भारत की अब तक की प्रतिक्रिया
- 13 जून 2025 को जब इज़राइल ने ईरान पर ‘ऑपरेशन राइजिंग लायन’ शुरू किया, भारत ने एक संयमित बयान दिया – जिसमें युद्ध से बचने और कूटनीति से समाधान निकालने की बात कही गई।
- 14 जून को शंघाई सहयोग संगठन (SCO) के एक बयान से भारत ने खुद को अलग कर लिया, जिसमें इज़राइल की आलोचना की गई थी। भारत ने फिर से वही दोहराया – “संघर्ष को रोकना चाहिए, बातचीत होनी चाहिए।”
भारत ने दोनों पक्षों को संयम बरतने की सलाह दी, लेकिन इज़राइल की किसी भी कार्रवाई की निंदा नहीं की।
विशेषज्ञों की राय: क्या भारत का झुकाव साफ है?
कई कूटनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि भारत की प्रतिक्रिया “तटस्थ” कम और “इज़राइल समर्थक” अधिक लग रही है।
इसका असर ईरान के साथ भारत के रिश्तों पर पड़ सकता है – खासकर ऐसे समय में जब भारत को मध्य-पूर्व में अपनी ऊर्जा ज़रूरतें और व्यापारिक हित सुरक्षित रखने हैं।
भारत के हित दांव पर क्यों हैं?
- तेल आयात: भारत अपनी ऊर्जा ज़रूरतों के लिए पश्चिम एशिया पर निर्भर है।
- भारतीय प्रवासी: लाखों भारतीय खाड़ी देशों में काम करते हैं – युद्ध से उनकी सुरक्षा और रोजगार दोनों पर खतरा हो सकता है।
- रणनीतिक प्रोजेक्ट: चाबहार पोर्ट और इंटरनेशनल नॉर्थ-साउथ ट्रांसपोर्ट कॉरिडोर (INSTC) जैसी योजनाओं पर असर पड़ सकता है।
निष्कर्ष: भारत को क्या करना चाहिए?
भारत को संतुलन की नीति के साथ-साथ सक्रिय कूटनीतिक प्रयास भी करने होंगे। सिर्फ ‘चिंता’ जताना या ‘बातचीत की सलाह’ देना अब पर्याप्त नहीं लगता। भारत को ज़मीनी स्तर पर इस क्षेत्र में शांति कायम करने के लिए वैश्विक मंचों पर अपनी भूमिका स्पष्ट करनी होगी।